
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने की समयसीमा तय करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भेजे गए रेफरेंस पर अब 22 जुलाई 2025 को सुनवाई होगी। इस संवैधानिक मुद्दे पर पांच जजों की संविधान पीठ विचार करेगी, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई करेंगे। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल हैं।
क्या है मामला?
यह मामला सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के उस ऐतिहासिक फैसले से जुड़ा है जिसमें कोर्ट ने राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने की समय-सीमा निर्धारित की थी। इसी फैसले के आलोक में राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत कोर्ट से 14 संवैधानिक सवालों पर राय मांगी है।
इन सवालों में खासकर यह पूछा गया है कि क्या विधेयकों को मंजूरी देने में राष्ट्रपति की कोई समय-सीमा होनी चाहिए और अगर कोई विधेयक असंवैधानिक प्रतीत हो तो उस पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की राय लेना जरूरी है या नहीं।
तमिलनाडु का मामला बना वजह
इस पूरे विवाद की शुरुआत तमिलनाडु सरकार द्वारा दाखिल एक याचिका से हुई थी, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल ने विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को लंबित रखा और उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा बताते हुए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए थे।
उपराष्ट्रपति का एतराज
इस निर्णय के बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सार्वजनिक मंच से अपनी नाराजगी जताते हुए कहा था कि अदालतें राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद को निर्देश नहीं दे सकतीं। उन्होंने इसे संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताया और कहा कि राष्ट्रपति की भूमिका को समय-सीमा में बांधना अनुचित होगा।
संवैधानिक सवालों की गूंज
राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए रेफरेंस में जो सवाल उठाए गए हैं, वे न केवल विधायी प्रक्रिया से जुड़े हैं बल्कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों की व्याख्या पर भी केंद्रित हैं। यह पहली बार है जब विधेयकों की स्वीकृति प्रक्रिया में समयसीमा को लेकर सुप्रीम कोर्ट सीधे मार्गदर्शन देने जा रहा है।
22 जुलाई की सुनवाई क्यों है अहम?
22 जुलाई को होने वाली सुनवाई इस दृष्टि से महत्वपूर्ण होगी कि इससे स्पष्ट होगा कि संसद और विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर संवैधानिक पदाधिकारी कितनी देरी कर सकते हैं। साथ ही यह भी तय हो सकता है कि जब कोई विधेयक असंवैधानिक दिखे, तो राष्ट्रपति को सीधे सुप्रीम कोर्ट की राय लेना अनिवार्य है या नहीं।
इस सुनवाई से भारत की विधायी प्रक्रिया, संघीय ढांचे, और कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के अधिकारों की सीमाएं स्पष्ट हो सकती हैं।