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'आया राम गया राम' के नए प्रतीक बने श्यामलाल, BSP-RJD से JDU तक... हर चुनाव में बदली पार्टी, पर आज तक नहीं खुला जीत का खाता

बक्सर की राजनीति में श्यामलाल कुशवाहा एक ऐसी मिसाल बन गए हैं, जिनकी तुलना बार-बार असफल होने वाले या दल बदलने वाले नेताओं से की जाती है।

Bihar Politics: भारतीय राजनीति में ‘आया राम, गया राम’ की कहावत बहुत पुरानी है, जो दल-बदल करने वाले नेताओं के लिए इस्तेमाल होती है। लेकिन बिहार के बक्सर जिले की राजनीति में, यह कहावत एक नए नाम में बदल गई है – श्यामलाल कुशवाहा। श्यामलाल कुशवाहा उस नेता का नाम है, जो पैसे से मजबूत थे, लोकप्रिय भी हुए, लेकिन बार-बार पार्टियां बदलने के बावजूद आज तक जीत का खाता नहीं खोल पाए।

आज आलम यह है कि बक्सर की राजनीति में अगर कोई नेता बार-बार दल बदलता है या लगातार चुनाव हारता है, तो लोग उसकी तुलना सीधे श्यामलाल से करने लगते हैं।

Bihar Politics: कौन हैं श्यामलाल कुशवाहा?

बक्सर के लोगों ने 2007-08 के आसपास श्यामलाल सिंह कुशवाहा का नाम एक नए और आर्थिक रूप से मजबूत नेता के तौर पर सुना। उन्होंने राजनीति में आते ही बहुत जल्दी लोकप्रियता हासिल कर ली और लोकसभा से लेकर विधानसभा तक, हर चुनाव में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। लेकिन, एक चीज जो हर चुनाव में बदल जाती थी, वह थी उनकी पार्टी।

हर चुनाव में नई पार्टी, नतीजा वही ‘हार’

श्यामलाल कुशवाहा की चुनावी यात्रा दल-बदल का एक उत्कृष्ट उदाहरण है:

  • 2009 (लोकसभा चुनाव): कुशवाहा ने पहली बार बहुजन समाज पार्टी (BSP) के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा। इस चुनाव में उन्होंने करीब 20% वोट हासिल किए और तीसरे स्थान पर रहकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई।
  • 2010 (विधानसभा चुनाव): एक साल बाद ही, 2010 के विधानसभा चुनाव में, उन्होंने पार्टी बदल ली। इस बार वह राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के उम्मीदवार बने। बक्सर विधानसभा सीट से उन्होंने 22% मत प्राप्त किए और दूसरे स्थान पर रहे, लेकिन जीत फिर भी दूर रह गई।
  • 2014 (लोकसभा चुनाव): 2014 की मोदी लहर में, श्यामलाल कुशवाहा ने एक बार फिर पाला बदला और जनता दल यूनाइटेड (JDU) के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा। लेकिन इस बार उनका प्रदर्शन और भी खराब रहा और वे 13% मतों के साथ चौथे स्थान पर खिसक गए।

‘कहावत’ में कैसे बदले श्यामलाल?

तीन बड़े चुनाव, तीन अलग-अलग बड़ी पार्टियां (BSP, RJD, JDU) और नतीजा सिफर। लगातार दल बदलने और हर बार हारने की उनकी इस ‘कला’ ने उन्हें बक्सर की राजनीति में एक मुहावरा या ‘कहावत’ बना दिया।

यह कहानी उन नेताओं के लिए एक सबक है जो विचारधारा के बजाय सिर्फ ‘जीत की संभावना’ देखकर पार्टियां बदलते हैं। श्यामलाल कुशवाहा का उदाहरण दिखाता है कि जनता भी ऐसे नेताओं को पहचानती है जो किसी एक पार्टी या विचारधारा के प्रति वफादार नहीं रहते। 2014 के बाद, उन्हें किसी बड़े दल से टिकट नहीं मिला और धीरे-धीरे वह बक्सर की मुख्यधारा की राजनीति से गायब हो गए।

Sanjna Gupta
Author: Sanjna Gupta

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