
Google Job Cuts: गूगल कंपनी ने अमेरिका में 200 से ज्यादा AI कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स को अचानक नौकरी से निकाल दिया है। इन वर्कर्स ने बेहतर तनख्वाह, नौकरी की सुरक्षा और काम की अच्छी हालत की मांग की थी। रिपोर्ट के मुताबिक, यह कार्रवाई वर्कर्स के यूनियन बनाने की कोशिश के बाद हुई। कई वर्कर्स ने नेशनल लेबर रिलेशंस बोर्ड में शिकायत दर्ज की है कि उन्हें गलत तरीके से निकाला गया। यह घटना टेक जगत में कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों की मुश्किलों को सामने ला रही है।
ये वर्कर्स गूगल के AI टूल्स जैसे जेमिनी और AI ओवरव्यूज को बेहतर बनाने का काम करते थे। वे चैटबॉट के जवाबों को चेक करते, संपादित करते और दोबारा लिखते थे ताकि वे इंसानों जैसे लगें। इनमें राइटर्स, टीचर्स, क्रिएटिव लोग और पीएचडी या मास्टर्स डिग्री वाले ‘सुपर रेटर्स’ शामिल थे। लेकिन कंपनी ने कहा कि प्रोजेक्ट को ‘रैंपिंग डाउन’ किया जा रहा है, यानी काम कम हो रहा है। वर्कर्स का मानना है कि यह बहाना है और असल में उनकी मांगों से डरकर यह कदम उठाया गया।
वर्कर्स की मांगें क्या थीं?
वर्कर्स लंबे समय से अपनी परेशानियां बता रहे थे। वे कहते थे कि उन्हें कम तनख्वाह मिलती है और काम के टारगेट इतने सख्त हैं कि तनाव बढ़ जाता है। फरवरी में उन्होंने आंतरिक सोशल चैनल्स पर इन बातों पर चर्चा की, तो गूगल ने उन्हें इन चैनल्स का इस्तेमाल करने से रोक दिया। साल की शुरुआत में कुछ वर्कर्स ने यूनियन बनाने की कोशिश भी की, लेकिन कंपनी ने इसे रोक दिया। अब निकाले गए वर्कर्स ने बोर्ड में शिकायत की है कि यह सब उनकी आवाज दबाने के लिए किया गया।
गूगल की तरफ से क्या कहा गया?
गूगल ने वर्कर्स को सिर्फ इतना बताया कि ‘प्रोजेक्ट को रैंपिंग डाउन किया जा रहा है’। कंपनी ने लेऑफ का कोई और कारण नहीं बताया। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि यह कार्रवाई मांगों के जवाब में लगती है। गूगल पहले भी यूनियन बनाने वालों को रोक चुका है। कंपनी का कहना है कि कॉन्ट्रैक्टर्स थर्ड-पार्टी एजेंसी के जरिए काम करते हैं, इसलिए वे सीधे जिम्मेदार नहीं।
बड़े असर क्या होंगे?
यह घटना AI इंडस्ट्री में लेबर राइट्स पर सवाल खड़े कर रही है। कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स बिना सुरक्षा के काम करते हैं और आसानी से निकाल दिए जाते हैं। बोर्ड की जांच से पता चलेगा कि क्या गूगल ने नियम तोड़े। विशेषज्ञ कहते हैं कि टेक कंपनियां AI को तेजी से बढ़ा रही हैं, लेकिन वर्कर्स की हालत पर ध्यान कम दे रही हैं। इससे दूसरे देशों में भी ऐसी मांगें तेज हो सकती हैं।