रांची : डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में एक दिवसीय टुसु मिलन समारोह का आयोजन विश्वविद्यालय परिसर में स्थित आखड़ा में दिनांक 11 जनवरी दिन शनिवार को किया गया। मिलन समारोह की शुरूआत टुसु के स्वरूप चौड़ल को विश्वविद्यालय परिसर के चारों ओर गाजे-बाजे के साथ आखड़ा में लाया गया। आखड़ा में स्थापना पारंपरिक विधि-विधान से कुड़मालि रिति रिवाज के साथ किया गया। इसमें डॉ. पुलकेश्वर महतो ने टुसु का परछन पाठ विद्यार्थी के साथ प्रस्तुत किया। फिर अतिथियों द्वारा टुसु के चौड़ल पर पुष्पार्पण एवं चुमावन किया गया। इसके बाद विभाग के छात्र-छात्राओं द्वारा स्वागत गीत गाकर अतिथियों को स्वागत किया।
कार्यक्रम में आंगतुक अतिथियों का स्वागत जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के कोर्डिनेटर डॉ. बिनोद कुमार ने करते हुए कहा कि यहां के पर्व झारखंडी एकता, समरसता का प्रतीक है। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. (डॉ.) यू. सी. मेहता ने टुसु पर्व के विषय वस्तु को विस्तार से बतलाते हुए कहा कि टुसु न केवल झारखंड में मनाया जाता है बल्कि पश्चिम बंगाल, उड़िसा, असम, बिहार, बांगला देश आदि कई क्षेत्रों में मनाया है। यह हमारी संस्कृति का विशेष अंग है विशेषकर कुड़मालि संस्कृति में। विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित पूर्व कुलपति प्रो. (डॉ.) एस. एन. मुंडा ने टुसु पर्व को हर्षो उल्लास, उमंग का सबसे बड़ा पर्व बतलाया। साथ ही इन्होंने टुसु के साथ अन्य झारखंडी पर्व-त्योहारों के उपर बतलाते हुए कहा कि इन पर्व-की ऐतिहासिकता, वैज्ञानिकता, दार्शनिकता को शोध के माध्यम से प्रकाश में लाने को जोर दिया।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. (डॉ.) तपन कुमार शांडिल्य ने टुसु पर्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि टुसु कृषि से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पर्व है। इन्होंने कहा कि किसान जब अपने फसल धान की कटाई कर लेता है। तब इस खुशी के अवसर पर टुसु पर्व पूरे महीने भर मनाकर पूस संक्रांति के दिन अंतिम रूप से मनाते हैं। इन्होंने टुसु को बलिदान के रूप में भी याद किये जाने की बात कही।
बताते चलें कि ‘टुसु’ को पाँच परगना और पूरे कुड़मालि क्षेत्र में लखी मां के प्रतीक के रूप में माना जाता है। इसकी उत्पति कृषि सभ्यता के विकास के साथ जुड़ा हुआ है जो हमारे अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार के रूप में माना जाता है। यहां के सभ्यता ने जब से धान की खेती करना प्रारंभ किया तब से इस टुसु को मनाया जाता है। टुसु को डिनि माइ भी कहा जाता है। इसकी शुरूआत वर्ष के रहइन महीना से खेत में धान के बीजा देने से ही हो जाती है। फिर धान के कटाई इस अघहन-पूस महीना में हो जाती है तब फिर अंतिम रूप में कुछ धान के गाछी को प्रतिकात्मक ढंग से खेत से खलिहान में विधिवत लाकर स्थापित करते हैं फिर पुनः उसी समय खलिहान से किसान उस धान में कुछ अंश को लाकर घर के कनगा अथवा दिरखा में लाकर स्थापित करते हैं। इसको टुसु थापना कहा जाता है। चुंकि टुसु को लखि का प्रतीक माना जाता है और कुड़मालि संस्कृति कुंवारी लड़की को भी लखि का प्रतीक माना जाता है। इस कारण टुसु थापना का कार्य भी कुुवांरी लड़कियां करती है। इसके स्थापना के दिन से प्रत्येक 8 वें दिन में आठखलइ का भोग चढ़ाया जाता है। इसमें तरह – तरह के बीजों का भूजा रहता है। यही टुसु का प्रसाद होता है। अतः टुसु पर्व पूरी तरह प्रकृति आधारित पर्व जो कि झारखंडी पर्व की एक विशेष विशेषता है।
इस अवसर पर पूर्व छात्र कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ. एस. एम. अब्बास सर, रांची विश्वविद्यालय अंतर्गत मारवाड़ी कॉलेज, रांची कुड़मालि विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. वृंदावन महतो, विशिष्ट अतिथि के रूप विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. (डॉ.) नमिता सिंह, मानवविकी संकाय के डीन डॉ. मो. अयुब, अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष डॉ. विनय भरत, मानवशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अभय सागर मिंज, फिजिक्स के डॉ. राजेश कुमार सिंह, मेथमेटिक्स के विभागाध्यक्ष डॉ. अनिता कुमारी, इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष एवं पी.आर.ओ डॉ. राजेश कुमार, एम.सी.ए. एवं पोर्टल इंचार्ज डॉ. आइ. एन. साहु, सी. ए. आईटी के डॉ. राजेंद्र प्रसाद महतो, डॉ. जाफर अब्बास, हिंदी के डॉ. मृत्युजंय कोईरी, डॉ. जितेंद्र कुमार सिंह, भूगोल एवं अमानत के डॉ. सत्य प्रिय महतो, डॉ. रतन महतो, डॉ. अभय कृष्ण, बीएड. के डॉ. पारितोष मांझी, संताली के संतोष मुर्मू, कुड़ुख के डॉ. सीता कुमारी, डॉ. सुनिता कुमारी, पंचपरगनिया के लक्ष्मी कांत प्रमाणिक, ओड़िया विभाग के डॉ. हलधर महतो, कुड़मालि विभाग के डॉ. निताई चंद्र महतो, नागपुरी के डॉ. मनोज कछप, विद्यार्थी परिषद के अमन कुमार, बब्लु कुमार महतो, कमलेश महतो, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के शोधार्थी अशोक कुमार पुरान, रूपेश कुमार कुशवाहा, सुचित कुमार राय, राजेश कुमार महतो, सरन प्रमाणिक, प्रवीण कुमार महतो, हेमन्त अहीर, सुकुमार , देव, सुरज, काजल, छाया, लीलिमा, पुजा, रिया आदि विश्वविद्यालय के कई शिक्षक एवं शिक्षेकेत्तर कर्मचारी उपस्थित थे।
टुसु कथावाचक के रूप में कुड़मालि विभाग विभागाध्यक्ष डॉ. परमेश्वरी प्रसाद महतो ने प्रस्तुत करते हुए कहा कि टुसु पर्व की शुरूआत वर्ष के जेठ महीने के रहइन दिन प्रारंभ हो जाती है जब किसान घर से खेत में धान का बीजा डालने के लिए शुभारंभ करते हैं। धान की फसल तैयार होने के पश्चात इसको खलिहान में समेटने के बाद अघहन महीने के अंतिम दिन यानी अघहन सांकराइत के दिन इस धान को डिनि बुढ़ि के रूप में खेत से खलिहान तक लाते हैं और खलिहान से टुसु रूप में अपने घर में स्थापित करते हैं। पूरे महीने टुसु की सेवा में रहते और पुस सांकराइत को पुनः जलाशय में विसर्जित करते हैं। विसर्जन के पूर्व इस चौड़ल को मेला में पारंपरिक टुसु लोकगीत एवं नृत्य के साथ घुमाया जाता है। इस तरह टुसु पर्व धान के खेती से जुड़ी होने की बात कही। इस कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचिव, विशिष्ट अतिथि एवं अन्य अतिथियों ने छात्र-छात्राओं के साथ सामुहिक टुसु नृत्य-गीत प्रस्तुत किया। इसका अयोजन जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग और हिंदी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में किया गया।
समारोह में मंच संचालन विभाग के शोधार्थी अशोक कुमार पुराण एवं रूपेश कुमार कुशवाहा ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन बबलु कुमार महतो एवं अमनजीन मेहता ने किया।
