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सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी: “बोलने की आजादी का मतलब ये नहीं कि कुछ भी कहा जाए”

सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि “बोलने की आजादी का मतलब यह नहीं कि कोई व्यक्ति कुछ भी बोल सकता है।” अदालत ने साफ किया कि हर नागरिक को अपनी जुबान और शब्दों पर नियंत्रण रखना सीखना चाहिए, खासकर डिजिटल माध्यमों पर।

वजाहत खान के खिलाफ मामला

यह टिप्पणी एक याचिका की सुनवाई के दौरान सामने आई, जिसे पत्रकार वजाहत खान ने दायर किया था। उन्होंने कोर्ट से आग्रह किया कि उनके खिलाफ देश के अलग-अलग राज्यों में दर्ज मामलों को या तो एक ही स्थान पर ट्रांसफर कर दिया जाए या समाप्त कर दिया जाए।

मामले की पृष्ठभूमि में वजाहत खान द्वारा सोशल मीडिया पर की गई विवादास्पद टिप्पणियां थीं, जिनमें कथित तौर पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई थी। खासतौर पर, उनके एक ट्वीट में कामाख्या देवी के उपासकों को लेकर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी पर विवाद खड़ा हो गया।

कोर्ट की फटकार

वजाहत खान के वकील ने दलील दी कि उनकी पोस्ट केवल प्रतिक्रिया स्वरूप थी। लेकिन कोर्ट ने तीखा सवाल पूछा, “जब आप पहले ही एक बार विवाद में पड़ चुके हैं, तो वही गलती दोबारा क्यों की?” अदालत ने दोहराया कि सोशल मीडिया पर लिखी जाने वाली हर बात की एक जिम्मेदारी होती है।

आजादी का दुरुपयोग और बढ़ता तनाव

कोर्ट ने कहा कि आजकल बहुत से लोग फ्रीडम ऑफ स्पीच का गलत मतलब निकालते हैं। “सोशल मीडिया पर बेकाबू टिप्पणियां समाज में तनाव पैदा करती हैं और पुलिस तथा न्यायपालिका को अनावश्यक दबाव में डालती हैं,” कोर्ट ने कहा।

जजों ने यह भी जोड़ा कि “अगर हर व्यक्ति अपनी सीमाएं समझे और सोशल मीडिया को संयम से इस्तेमाल करे, तो ऐसे विवादों से बचा जा सकता है। बार-बार सरकार का हस्तक्षेप भी उचित नहीं।”

फिलहाल राहत, लेकिन मामला जारी

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल वजाहत खान को राहत देते हुए राज्य सरकारों से जवाब तलब किया है, लेकिन अदालत ने स्पष्ट किया कि यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं है। यह पूरे समाज के लिए एक जागरूकता का विषय है—जहां सोशल मीडिया के उपयोग और जिम्मेदारी के बीच संतुलन जरूरी है।

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